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मूक सम्बोधन !

सृजन
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मैँ निरा शब्द नही हूँ ,जो कविता बनकर फूट पड़ा हूँ ।
न ही मैँ प्रतिस्पर्धा मेँ ,प्रतिभागी बनकर कूद पड़ा हूँ ।
किसी विरह विषादित हृदय का ,मैँ एक करुण रुदन हूँ ।
किसी के मन के भावोँ का मैँ एक मूक सम्बोधन हूँ ।

मैँ तो नीरस ठहरा ,मुझमेँ रस का वो भण्डार कहाँ ?
जो जग का विस्मरण करा दे ,वो कल्पना संसार कहाँ ?
मैँ विरह के आँसू से सिँचित तरु का एक सुमन हूँ ।
किसी के मन के भावोँ का मैँ एक मूक सम्बोधन हूँ ।

मैँ हारे हुए सिपाही की लज्जा और अपमान हूँ ।
भोर के अन्तिम तारे का ,मैँ बुझता हुआ अरमान हूँ ।
सुख के स्वप्निल मौसम मेँ ,मैँ दुख का एक आगमन हूँ ।
किसी के मन के भावोँ का मैँ एक मूक सम्बोधन हूँ ।

मैँ उनका प्रतिनिधि हूँ ,जो गवाँ चुके सब कुछ अपना ।
लुट गये उन्ही के हाथोँ से जिन्हे वे कहते रहे अपना ।
मैँ तो महाभारत के रण मेँ निरुपाय हुआ दुर्योधन हूँ ।
किसी के मन के भावोँ का मैँ एक मूक सम्बोधन हूँ ।

घोर अपमान से दहक उठे जो ,मैँ ऐसा दावानल हूँ ।
किसी की राह निहारते हैँ जो ,मैँ तो वही नेत्र सजल हूँ ।
स्वयं पर ही जो थोपा गया है ,मैँ ऐसा संशोधन हूँ ।
किसी के मन के भावोँ का मैँ एक मूक सम्बोधन हूँ ।

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