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मनुहार ……….एक स्त्री का !

सृजन
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ना – ना रे सजनवा ना ,
ऐसे न मुझे तरसा ।।

::

मुँह फेरे खड़े हो क्यो ?
यूँ जिद पर अड़े हो क्यो ?
मुखड़े की रंगत कहाँ गई ?
तेरी हँसी की संगत कहाँ गई?
मेरे हिय की प्यास बुझा दे ,
बरसा तू मुस्कान की बरखा ।।

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नभ की गोद का चंचल बालक ।
देखो तो सोने को है अब ।
क्योँ रात गुजारेँ हम आँखोँ मेँ ।
सो जायें एक दूजे की बाँहोँ मेँ ।
मन की उमंगे बहक रही हैँ ,
देखकर तेरा सुन्दर मुखड़ा ।।

::

फूलोँ की सेज कुम्हला जाएगी ।
ये रात सुहानी ढल जाएगी ।
क्या हासिल होगा दूरी से ।
इस अनचाही मजबूरी से ।
लो ,मैँ आँखेँ बन्द करती हूँ ,
भर लो मुझे बाहोँ मेँ सहसा ।।

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